Friday, September 25, 2009
अपाहिज
यहाँ हर मानव अपाहिज है
मैं भी अपाहिज हूँ
तुम भी।
यहाँ कोई गूँगा कोई बहरा
और कोई अंधा है।
कल शान्ति की इज्ज़त लुटी
शर्मा जी ने आँखें बंद कर लीं
वर्मा जी को कुछ सुनाई न दिया
और मैं कुछ बोल न सका।
जब प्रेम का गला दबाया गया था
तब भी ऐसा ही हुआ था।
यही नहीं जब ईमान सरेआम लूटा गया था
तब भी हम कुछ न कर सके थे
क्यों कि अब हम अपाहिज बन चुके हैं
ना अब हमेंकिसी की चीखें सुनाई देती हैं
न किसी के आँसू दिखाई देते हैं?
और न हम अन्याय के सामने
कुछ बोल सकते हैं।
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आप की इस रचना मे आदमी की बेबसी बखूबी उजागर हुई है।बहुत सुन्दर रचना है।बधाई स्वीकारें।
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